Monday, 19 November 2012

दान का महत्व

एक बार शिरडी के साई बाबा से उनकी परमभक्तलक्ष्मी ने पूछा, बाबा द्वारका माई में हर समय धूनी जलती रहती है. सुबह-शाम ग़रीबों की भूख मिटाती यह रसोई क्या आपके लिए दो रोटी नहीं दे सकती? बाबा ने बड़े प्रेम से उसे समझाते हुए कहा कि लक्ष्मी, इस जन्म में जब फक़ीर का चोला पहन ही लिया तो उसका धर्म भी निभाना पड़ेगा. इस दीन दुनिया से निर्लिप्त फक़ीर का धर्म है हर गृहस्थ के घर जाकर भोग करके अपना निर्वाह करे, ताकि वे गृहस्थ भी दान के अपने धर्म का पालन कर पाएं.
हर धर्म के प़ैगंबर या आध्यात्मिक गुरुओं ने मानव जीवन को सार्थक और सफल बनाने के लिए, जीवन का हर सुख पाने के लिए हर तरह के दान की बात कही है. ज़रा सोचें कि दान देकर हमें क्या प्राप्त होगा? आप अपने अनुभवों को याद करें.
गृहस्थ जब तक अपनी आय और अपने भोजन का कुछ प्रतिशत पुण्य आत्माओं, ग़रीबों और जीव-जंतुओं को दान करता रहेगा, उसका घर धन-धान्य और ख़ुशियों से भरा रहेगा. बाबा ने यही किया. अपने जीवन के अंतिम दिन तक वह अपनी बिगड़ती हालत की परवाह न करते हुए फक़ीरी के इस धर्म को निभाते रहे. सचमुच साथियों, भारतीय शास्त्रों में दान के महत्व का बहुत गुणगान है. हर धर्म के प़ैगंबर या आध्यात्मिक गुरुओं ने मानव जीवन को सार्थक और सफल बनाने के लिए, जीवन का हर सुख पाने के लिए हर तरह के दान की बात कही है. ज़रा सोचें कि दान देकर हमें क्या प्राप्त होगा? आप अपने अनुभवों को याद करें. हमें हमेशा किसी को कुछ देकर ख़ुशी ही होती है और नहीं तो किसी भूखे को भोजन कराकर या नेत्रहीन व्यक्ति को सड़क पार कराकर हम इतना अच्छा क्यों महसूस करते हैं? ऐसा इसलिए, क्योंकि प्रकृति की ही तरह हर जीवात्मा का मूल संस्कार है देना. प्रकृति का नियम भी है, जो जितना देगा, उसे उतना ही मिलेगा. लेकिन जब हम कुछ दे रहे होते हैं, तब हमें पता नहीं चलता कि हम दे रहे हैं, क्योंकि देना तो हमारे मूल में है और यही देयता की धारणा हमें दिव्यता प्रदान करती है. लेकिन दुख की बात यह है कि भय और संशय के इस माहौल में दान और धर्म के इस प्रकृति प्रदत्त गुण को भी हमने कारोबार का एक हिस्सा बना लिया है. कभी अपने ग्रहों के दोष ठीक करने के लिए कभी किसी और फल की प्राप्ति के लिए. कई बार तो अपने सिर पर आए संकट दूसरों पर डालने के लिए हमने दान देना शुरू कर दिया. आज अध्यात्म का काम करना भी फैशन हो गया है और दान देना स्टेटस सिंबल बन गया है. लेकिन जो प्रकृति का गुण आप में स्वतः ही है, उससे मिलने वाले पुण्यों से ख़ुद को परंपराओं या नियमों के चक्रव्यूह में फंसाकर वंचित न करें. आज स्थूल में कुछ देने की स्थिति नहीं भी है तो सूक्ष्म में शुभ भावना, शुभकामना, सच्ची ईमानदारी की भावना, प्रेम एवं वात्सल्य का भाव तो दान कर ही सकते हैं. किसी ग़रीब की आवाज़ सुनकर उसके आंसुओं को पोछ तो सकते हैं. रोते को सांत्वना तो दे सकते हैं, किसी डूबते को आशा और विश्वास का तिनका तो दे ही सकते हैं. आप और हम इतना भी कर लेंगे तो विश्वास रखिए कि सामने वाला आपके हौसले या विश्वास से अपने आप ही उठ जाएगा और अपने जीवन को सफल कर पाएगा. दान पैसे का, दवा का, अनाज का या शुभकामना का, जिस भाव से दिया जाए, वह महत्वपूर्ण होता है. ऐसे भी लोग हैं, जो रक्तदान करते हैं, नेत्रदान करते हैं. और कई तो अपने मरणोपरांत अपने शरीर को दान करने की वसीयत तक कर देते हैं. ओम साई राम.

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