Wednesday 26 March 2014

सर्व-कार्य-सिद्धि मंत्र


                      -: मंत्र :-
काली घाटे काली माँ, पतित-पावनी काली माँ,
जवा फूले-स्थुरी जलेसई जवा फूल में सीआ बेड़ाए
देवीर अनुर्बले एहि होत करिवजा होइबे
ताही काली धर्मेर बले काहार आज्ञे राठे
कालिका चण्डीर आसे


विधिः- उक्त मन्त्र भगवती कालिका का बँगला भाषा में शाबर मन्त्र है। इस मन्त्र को तीन बारजपकर दाएँ हाथ पर फूँक मारे और अभीष्ट कार्य को करे। कार्य में निश्चित सफलता प्राप्त होगी। गलत कार्यों में इसका प्रयोग करें।

Friday 21 March 2014

हनुमान चालीसा का पाठ क्यों करना चाहिए?


जय श्री राम

कलयुग में हनुमानजी की भक्ति सबसे सरल और जल्द ही फल प्रदान करने वाली मानी गई है। श्रीराम के अनन्य भक्त श्री हनुमान अपने भक्तों और धर्म के मार्ग पर चलने वाले लोगों की हर कदम मदद करते हैं। सीता माता के दिए वरदान के प्रभाव से वे अमर हैं और किसी ना किसी रूप में अपने भक्तों के साथ रहते हैं। हनुमानजी को मनाने के लिए सबसे सरल उपाय है हनुमान चालीसा का नित्य पाठ। हनुमानजी की यह स्तुति का सबसे सरल और सुरीली है। इसके पाठ से भक्त को असीम आनंद की प्राप्ति होती है। तुलसीदास द्वारा रचित हनुमान चालीसा बहुत प्रभावकारी है।इसकी सभी चौपाइयां मंत्र ही हैं। जिनके निरंतर जप से ये सिद्ध हो जाती है और पवनपुत्र हनुमानजी की कृपा प्राप्त हो जाती है। यदि आप मानसिक अशांति झेल रहे हैं, कार्य की अधिकता से मन अस्थिर बना हुआ है, घर-परिवार की कोई समस्यां सता रही है तो ऐसे में सभी ज्ञानी विद्वानों द्वारा हनुमान चालीसा के पाठ की सलाह दी जाती है। इसके पाठ से चमत्कारिक फल प्राप्त होता है, इसमें को शंका या संदेह नहीं है। यह बात लोगों ने साक्षात् अनुभव की होगी की हनुमान चालीसा के पाठ से मन को शांति और कई समस्याओं के हल स्वत: ही प्राप्त हो जाते हैं। साथ ही हनुमान चालीसा का पाठ करने के लिए कोई विशेष समय निर्धारित नहीं किया गया है। भक्त कभी भी शुद्ध मन से हनुमान चालीसा का पाठ कर सकता है
श्री हनुमान चालीसा
 दोहा
 
श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।
 
बरनऊं  रघुबर बिमल जसु, जो दयकु फल चारि।।१।।
 
बुद्धिहीन   तनु   जानिकेसुमिरों  पवन-कुमार।
 
बल बुद्धि विद्या  देहु  मोहिं, हरहु कलेश विकार।।२।।
चौपाई
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर।।१।।
रामदूत अतुलित बल धामा।
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा।।२।।
महावीर बिक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी।।३।।
कंचन बरन बिराज सुबेसा।
कानन कुंडल कुंचित केसा।।४।।
हाथ बज्र अरु ध्वजा बिराजै।
काँधे  मूंज  जनेउ  साजै।।५।।
शंकर सुवन केसरी नन्दन।
तेज प्रताप महा जग वन्दन।।६।।
विद्यावान गुनी अति चातुर।
राम  काज करिबे को आतुर।।७।।
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।
राम लखन सीता मन बसिया।।८।।
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।
विकट रूप धरि लंक जरावा।।९।।
भीम रूप धरि असुर संहारे।
रामचन्द्र के काज संवारें।१०।।
लाय सजीवन लखन जियाये।
श्री रघुबीर हरषि उर लाये।।११।।
रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।।१२।।
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।।१३।।
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।
नारद सारद सहित अहीसा।।१४।।
यम कुबेर दिगपाल जहाँ ते।
कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते।।१५।।
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।
राम मिलाय राज पद दीन्हा।।१६।।
तुम्हरो मन्त्र विभीषन माना।
लंकेश्वर भये सब जग जाना।।१७।।
जुग सहस्र योजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।१८।।
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लांघि गयो अचरज नाहीं।।१९।।
दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।।२०।।
राम दुआरे तुम रखवारे।
होत आज्ञा बिनु पैसारे।।२१।।
सब सुख लहै तुम्हारी सरना।
तुम रक्षक काहू को डरना।।२२।।
आपन तेज सम्हारो आपै।
तीनों लोक हाँक ते काँपै।।२३।।
भूत पिसाच निकट नहिं आवै।
महावीर जब नाम सुनावै।।२४।।
नासे रोग हरै सब पीरा।
जपत निरंतर हनुमत बीरा।।२५।।
संकट तें हनुमान छुड़ावै।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावैै।।२६।।
सब पर राम तपस्वी राजा।
तिन के काज सकल तुम साजा।।२७।।
और मनोरथ जो कोई लावै।
सोई अमित जीवन फल  पावै।।२८।।
चारों युग परताप तुम्हारा।
है परसिद्ध जगत उजियारा।।२९।।
साधु सन्त के तुम रखवारे।
असुर निकंदन राम दुलारे।।३०।।
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दता।
अस बर दीन जानकी माता।।३१।।
राम रसायन तुम्हरे पासा।
सद रहो रघुपति के दासा।।३२।।
तुम्हरे भजन राम को पावै।
जनम जनम के दु: बिसरावै।।३३।।
अन्त काल रघुवर पुर जाई।
जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई।।३४।।
और देवता चित्त धरई।
हनुमत सेई सर्व सुख करई।।३५।।
संकट कटै मिटे सब पीरा।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।।३६।।
जय जय जय हनुमान गोसाईं।
कृपा करहुं गुरुदेव की नांई।।३७।।
जो सत बार पाठ कर जोई।
छूटहिं बंदि महासुख होई।।३८।।
जो यह पढ़ैं हनुमान चालीसा।
होय सिद्धि साखी गौरीसा।।३९।।
तुलसी दास सदा हरि चेरा।
कीजै नाथ हृदय महँ डेरा।।४०।।
दोहा
पवनतनय  संकट  हरन, मंगल  मूरति  रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप।।