स्तुति श्री राम
॥श्री गणेशाय नमः॥
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणम्।
नवकंज लोचन, कंज-मुख, कर-कंज, पद-कंजारुणम्॥
नवकंज लोचन, कंज-मुख, कर-कंज, पद-कंजारुणम्॥
भावार्थ : हे मन! कृपालु श्री
रामचंद्र जी का भजन कर...
वह संसार के जन्म-मरण रूपी दारुण भय को दूर करने
वाले हैं...
उनके नेत्र नव-विकसित कमल के समान हैं,
तथा मुख, हाथ और चरण भी
लाल कमल के सदृश हैं...
रामचंद्र जी का भजन कर...
वह संसार के जन्म-मरण रूपी दारुण भय को दूर करने
वाले हैं...
उनके नेत्र नव-विकसित कमल के समान हैं,
तथा मुख, हाथ और चरण भी
लाल कमल के सदृश हैं...
कंदर्प अगणित अमित छवि, नवनील-नीरद सुन्दरम्।
पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरम्॥
पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरम्॥
भावार्थ : उनके सौंदर्य की छटा
अगणित कामदेवों से बढ़कर है,
उनके शरीर का नवीन-नील-सजल मेघ समान सुंदर
वर्ण (रंग) है,
उनका पीताम्बर शरीर में मानो बिजली के समान चमक रहा है,
तथा
ऐसे पावन रूप जानकीपति श्री राम जी को मैं नमस्कार करता हूं...
अगणित कामदेवों से बढ़कर है,
उनके शरीर का नवीन-नील-सजल मेघ समान सुंदर
वर्ण (रंग) है,
उनका पीताम्बर शरीर में मानो बिजली के समान चमक रहा है,
तथा
ऐसे पावन रूप जानकीपति श्री राम जी को मैं नमस्कार करता हूं...
भजु दीनबंधु दिनेश दानव, दैत्य-वंश-निकन्दनम्।
रघुनंद आनंदकंद कौशलचंद दशरथ-नंदनम्॥
रघुनंद आनंदकंद कौशलचंद दशरथ-नंदनम्॥
भावार्थ : हे मन! दीनों के
बंधु, सूर्य के समान तेजस्वी,
दानव और दैत्यों के वंश का समूल नाश करने
वाले, आनन्द-कन्द,
कोशल-देशरूपी आकाश में निर्मल चन्द्रमा के समान,
दशरथ-नन्दन श्री राम जी का भजन कर...
बंधु, सूर्य के समान तेजस्वी,
दानव और दैत्यों के वंश का समूल नाश करने
वाले, आनन्द-कन्द,
कोशल-देशरूपी आकाश में निर्मल चन्द्रमा के समान,
दशरथ-नन्दन श्री राम जी का भजन कर...
सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणम्।
आजानुभुज शर चाप धर, संग्रामजित खरदूषणम्॥
आजानुभुज शर चाप धर, संग्रामजित खरदूषणम्॥
भावार्थ : जिनके मस्तक पर
रत्नजटित मुकुट, कानों में कुण्डल,
भाल पर सुंदर तिलक और प्रत्येक अंग में
सुंदर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं,
जिनकी भुजाएं घुटनों तक लम्बी हैं, जो
धनुष-बाण लिए हुए हैं,
जिन्होंने संग्राम में खर और दूषण को भी जीत लिया
है...
रत्नजटित मुकुट, कानों में कुण्डल,
भाल पर सुंदर तिलक और प्रत्येक अंग में
सुंदर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं,
जिनकी भुजाएं घुटनों तक लम्बी हैं, जो
धनुष-बाण लिए हुए हैं,
जिन्होंने संग्राम में खर और दूषण को भी जीत लिया
है...
इति वदति तुलसीदास शंकर, शेष-मुनि-मन-रंजनम्।
मम हृदय-कंज-निवास कुरु, कामादि खल दल गंजनम्॥
मम हृदय-कंज-निवास कुरु, कामादि खल दल गंजनम्॥
भावार्थ : जो शिव, शेष और
मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले
और काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रुओं का नाश
करने वाले हैं...
तुलसीदास प्रार्थना करते हैं कि वह श्री रघुनाथ जी
मेरे
हृदय-कमल में सदा निवास करें...
मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले
और काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रुओं का नाश
करने वाले हैं...
तुलसीदास प्रार्थना करते हैं कि वह श्री रघुनाथ जी
मेरे
हृदय-कमल में सदा निवास करें...
मनु जाहिं राचेहु मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सांवरो।
करुणा निधान सुजान सील सनेह जानत रावरो॥
करुणा निधान सुजान सील सनेह जानत रावरो॥
भावार्थ : गौरी-पूजन में लीन
जानकी (सीता जी) पर गौरी जी प्रसन्न हो जाती हैं
और वर देते हुए कहती हैं -
हे सीता! जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है,
वह स्वभाव से ही सुंदर और
सांवला वर (श्री रामचन्द्र) तुम्हें मिलेगा..
. वह दया के सागर और सुजान
(सर्वज्ञ) हैं, तुम्हारे शील और स्नेह को जानते हैं...
जानकी (सीता जी) पर गौरी जी प्रसन्न हो जाती हैं
और वर देते हुए कहती हैं -
हे सीता! जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है,
वह स्वभाव से ही सुंदर और
सांवला वर (श्री रामचन्द्र) तुम्हें मिलेगा..
. वह दया के सागर और सुजान
(सर्वज्ञ) हैं, तुम्हारे शील और स्नेह को जानते हैं...
एहि भांति गौरि असीस सुनि सिय सहित हिय हरषी अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥
भावार्थ : इस प्रकार गौरी जी का
आशीर्वाद सुनकर जानकी जी सहित
समस्त सखियां अत्यन्त हर्षित हो उठती हैं...
तुलसीदास जी कहते हैं
कि तब सीता जी माता भवानी को बार-बार
पूजकर प्रसन्न
मन से राजमहल को लौट चलीं...
आशीर्वाद सुनकर जानकी जी सहित
समस्त सखियां अत्यन्त हर्षित हो उठती हैं...
तुलसीदास जी कहते हैं
कि तब सीता जी माता भवानी को बार-बार
पूजकर प्रसन्न
मन से राजमहल को लौट चलीं...
सोरठा: जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥
भावार्थ : गौरी जी को अपने अनुकूल जानकर सीता जी को जो हर्ष हुआ,
वह अवर्णनीय है... सुंदर मंगलों के मूल उनके बायें अंग फड़कने लगे...
वह अवर्णनीय है... सुंदर मंगलों के मूल उनके बायें अंग फड़कने लगे...
॥ सियावर रामचन्द्र की जय ॥
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